रहस्यज्ञान

Author - Vijay Batra (Karmalogist)

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मनुष्य की यह इच्छा रहती है कि ईश्वर के प्रत्येक रहस्य का ज्ञान उसे हो, इस ज्ञान को प्राप्त करने का एक मुख्य कारण यह है कि व्यक्ति के विचार में रहस्य को जानने के बाद उसे यह ज्ञात हो जायेगा कि ईश्वर क्या है, आत्मा कहाँ से आई, कर्मफल कैसे मिलता है, गुरु की आवश्यकता क्यों, मृत्यु के बाद आत्मा दूसरा शरीर कैसे धारण कर लेती है, मोक्ष, शांति, आनंद कैसे प्राप्त किए जा सकते है, मन को कैसे बाँधा जाए, पाप पुण्य की क्या परिभाषा है, इत्यादि,  इन्ही रहस्यों को जानना ही व्यक्ति के जीवन का एकमात्र लक्ष्य है | मैंने अपने अनुभव और ज्ञान के आधार पर इस पुस्तक के माध्यम से ऐसे ही कुछ रहस्यों को तर्क सहित समझाने का प्रयत्न किया है |

VIJAY BATRA KARMALOGIST

 

रहस्य :

ईश्वरीय रहस्य को समझने के लिए यह अति आवश्यक है कि सबसे पहले ईश्वर को समझा जाए, ईश्वर से संसार है ना कि संसार से ईश्वर है | एक बार यदि जड़ का ज्ञान पूरी तरह हो गया तो तना, टहनियां, पत्ते, फूल और फल का रहस्य समझने में सरलता होगी | ईश्वर का ज्ञान होते ही कर्म, कर्मफल, जन्म, मृत्यु, पुनर्जन्म, मोक्ष, शांति, आनंद का ज्ञान अपने-आप हो जायेगा |

ईश्वरीय नियम है कि संसार में जो भी हो रहा है वो सब कर्म होने और कर्म भोगने का कारण है, व्यक्ति को यह ज्ञान नहीं है या व्यक्ति इस बात के बारे में विचार नहीं करता कि कब कर्म बन रहा है और कब कर्म भोग रहा है | यदि व्यक्ति कर्म बनने और कर्म भोगने की स्व:चलित व्यवस्था को समझ ले तो बहुत सारे ऐसे नए कर्मों के बनने से बच सकता है जो वह नहीं चाहता और उन कर्मों की आवश्यकता भी नहीं है जिनका फल उसे कभी न कभी अवश्य भोगना भी पड़ता है | व्यक्ति ना चाहते हुए भी कर्म करता है और चाहते हुए भी कर्म नहीं कर पाता, इसके पीछे भी बहुत गूढ़ रहस्य है | कर्म का फल भोगना कर्मफल की मृत्यु माना जा सकता है कि जब कर्म हुआ था तो किसी फल का जन्म हुआ और फल को भोगने के साथ उसकी मृत्यु हो गयी | जिस प्रकार मृत्यु के पश्चात एक और अगला जन्म होता है उसी प्रकार कर्मफल भोगने के साथ ही एक और कर्म होता है और कर्मफल का जन्म होता है | संसार का रहस्य इसी नियम से चलता है कोई भी वस्तु उत्पन्न होने पर अपनी समाप्ति का संकेत देती है और अपनी समाप्ति पर फिर से नए रूप में उत्पन्न होने का संकेत देती है |

किसी भी विचार, वस्तु या व्यक्ति का होना दुःख का कारण है, इनका नहीं होना सुख का कारण है फिर भी सभी होने के लिए विचलित रहते है त्याग के बारे में विचार नहीं करते | इसे गहराई से समझते है, किसी वस्तु या व्यक्ति का नहीं होना एक विचार आने का कारण है कि यह वस्तु नहीं है, किसी वस्तु या व्यक्ति का मिलकर बिछुड़ना सौ विचार आने का कारण बनता है जो समय समय पर आते है और भावात्मक लाभ-हानि करते है और वस्तु या व्यक्ति का सारा जीवन साथ होना असंख्य विचारों के आने का कारण बनता है, विचारों का आना स्वाभाविक है | इच्छा, आवश्यकता और परिस्थिति विचार को जन्म देती है, परन्तु जब विचार के साथ उद्देश्य ( लक्ष्य/ अभिप्राय/ इरादा ) मिलता है तो यह कर्म कहलाता है और इसका एक फल बनता है जिसे हम पापकर्म या पुण्यकर्म भी कहते है | व्यक्ति का ध्यान/ चिंतन करने से एकमात्र लाभ यह है कि जितने समय तक व्यक्ति ध्यान में बैठा होता है उतने समय तक वह अकारण विचारों से बच जाता है, कर्म नहीं करना ही कर्मफल से बचाता है | ध्यान/चिंतन करने से मोक्ष, शांति या आनंद नहीं मिलते फिर भी हजारों लाखों विचारों से बचकर किसी एक विचार पर टिकना ही ध्यान करने का मुख्य उद्देश्य है जो सभी लोग नहीं कर पाते | विचारों की हलचल से बचना भी शांति होने का एक भाग है, जो लोग प्रयत्न करते है उनमे से भी कुछ ही होते है जो लम्बे समय तक एक विचार पर टिके रहते है, अधिकतर लोग या तो ऊब जाते है या फिर अपने आप को असफल मान कर दोबारा लाखों विचारों के सागर में डूब जाते है | व्यक्ति की स्वयं-इच्छा पर ही यह निर्भर करता है कि वह दिखने वाली साकार वस्तुओं, व्यक्तियों को अपने विचारों में रखता है या आँखों से नहीं दिखने वाले निराकार विचारों के संसार में रहता है | एक बात और समझना बहुत ही आवश्यक है कि विचारों को अपने अंदर रखना और विचारों में रहना दोनों में बहुत बड़ा अंतर है | विचारों के अपने अंदर रखना सांसारिक होने का लक्षण है और विचारों में रहना आध्यात्मिक होने का लक्षण है |

अच्छे कर्म :

सभी लोग यह समझते है कि अच्छे कर्म करने से धन और मान सम्मान मिलेगा, आयु बढ़ेगी, परिवार में सुख सुविधाओं की बढ़ोतरी होगी इत्यादि, परन्तु ऐसा बिलकुल भी नहीं है पहले समय में ऋषि मुनि जंगलों में सालों साल तक तपस्या करते थे जबकि उन्हें धन या सांसारिक सुख सुविधाओं की इच्छा या आवश्यकता बिलकुल भी नहीं थी यदि उन्हें सांसारिक सुख की इच्छा होती तो वह तपस्या में अपना समय नहीं लगाते वो भी साधारण व्यक्ति की तरह ही अपना जीवन बिता देते । ऋषि मुनि जो साधना या तपस्या करते थे और अपने उपदेशों द्वारा समाज में जन साधारण को अच्छे कर्म करने को कहते थे उसके पीछे दो कारण थे पहला मृत्यु के समय शरीर से प्राण आसानी से निकलें,  मृत्यु के समय कोई दुःख या बीमारी ना हो अनेकों लोग मृत्यु से पहले बीमारी और कष्ट भोगते है कभी कभी तो उनके अपने परिवार वाले उनकी मृत्यु के लिए प्रार्थना करते है दूसरा कारण मृत्यु के बाद उन्हें प्रेत योनि ना मिले, मृत्यु के बाद उन्हें अगला जन्म या मोक्ष की प्राप्ति हो उनकी आत्मा को बिना शरीर के भटकना ना पड़े व्यक्ति को अपने पिछले जन्मों के कर्मों के फल अवश्य भोगने पड़ते है उसको कम या अधिक नहीं किया जा सकता  इस जन्म के कर्म ऐसे ना हो जाये जिससे मृत्यु या मृत्यु के बाद का समय कष्टकारी हो इसलिए सभी को अच्छे कर्म करने होते है पिछले और अभी के कर्मो के आधार पर रहना चाहिए

मन :

मन आत्मा का ही आधा भाग है जो नकारात्मक है, मन से किया हर कर्म और उस कर्म का फल नकारात्मक होता है इसीलिए मन को काबू में करना अति आवश्यक है | मन को ऐसे कार्य करने में आनंद आता है जिन कार्यों को करने से मना किया जाता है मन ऐसे कार्यों को करने में रुचि नहीं लेता जिनको शुभ या सकारात्मक कहा जाता है | भय, आवश्यकता और आशा के कारण मन कभी भी स्वार्थी हो सकता है और मन को दूसरों से अधिक चाहिए, सदैव दूसरों से भिन्न चाहिए तथा जो वो चाहता है वो दूसरों का नहीं होना चाहिए | मन किसी सांसारिक धर्म के अधीन होकर नहीं चलता अपनी सुविधा के अनुसार चलना ही पसंदीदा कर्म है | कोई भी कर्म करने या ना करने में मन और अंतरात्मा की अपनी अपनी भूमिका होती है | संसार का ज्ञान, संसार में सफलता या असफलता मन से होते है क्योंकि मन आत्मा से बाहर की ओर आकर्षित होता है | मन जब भी शांति की खोज करता है अशांत होता है और जब अशांति में रमने लगता है तो शांत हो जाता है, इच्छाओं का अंत अशांति के बाद होता है परन्तु फिर भी जीव शांति की चाह में सारा जन्म अशांत रहता है |

चंचल मन :

गुरु, ईष्टदेव और जीवन साथी एक ही होना चाहिए, जो लोग बार बार गुरु, ईष्टदेव और जीवन साथी बदलते है ऐसे लोग जीवन में कभी भी सुखी या संतुष्ट नहीं रहते ऐसे लोग कभी भी सुखी नहीं रहते जो मन के कहने पर झूठे और क्षण भर के सुख के लिए अपने विवेक, निष्ठां और विश्वास की बलि चढ़ा देते है मन की स्वभाव चंचल है इसलिए वह प्रतीक्षा नहीं करता सब कुछ बहुत ही जल्दी चाहता है जिसके परिणाम से मनुष्य कभी इधर और कभी उधर की ठोकरें खाता है | मैंने ऐसे भी बहुत से लोग देखे है जो सांसारिक सुख को पाने और आवश्यकता को पूरा करने के लिए अपना धर्म ही बदल लेते है | यदि व्यक्ति की स्वयं की अवस्था इतनी ऊंची हो कि उसे निराकार का ज्ञान हो तो धर्म, विवशता या संसारिक आवश्यकता, बंधन इत्यादि उस पर कोई प्रभाव नहीं कर सकते | यदि व्यक्ति को किसी गुरु या देवता पर निर्भर रहने की आवश्यकता है तो उसे एक पर ही श्रद्धा और विश्वास रखना चाहिए | संसार में विचरने वाली सभी जीवों की आत्माएं नारी सामान है और संसार को बनाने और चलाने वाला निराकार एकमात्र पुरुष है | निराकार तक पहुँचने और मोक्ष का मार्ग किसी गुरु या ईष्टदेव द्वारा होकर ही जाता है इसलिए गुरु का होना अति आवश्यक है जिन लोगो को किसी पर विश्वास नहीं है या उनका कोई गुरु या ईष्टदेव नहीं है ऐसे लोग उन कुवारों की तरह है जिनका विवाह नहीं हुआ | जो लोग ज्ञान की कमी या इच्छा के अधीन होकर जीवन जीते है और बार बार अपना गुरु बदलते है ऐसे लोगो का मन वेश्या की तरह होता है जो किसी एक का नहीं होता | जो स्वयं अपने गुरु, ईष्टदेव या जीवन साथी के लिए निष्ठावान नहीं होता तो उनके गुरु, ईष्टदेव और जीवन साथी भी कभी उनके अपने नहीं होते |  इसलिए जिस पर भी विश्वास हो सारा जीवन उसी पर टिका रहना चाहिए,  इधर उधर भटकने से स्वयं की अवस्था को गिरती है | किसी एक पर चंचल मन को टिकाने का अभ्यास करने से मन का भटकना कम होता है जो आध्यात्मिक उन्नत्ति के लिए शुभ लक्षण है |

सुख दुःख :

सुख दुःख के रहस्य को समझा जाए तो सुख या दुःख अपनी अपनी सांसारिक सुविधा या असुविधा के नाम है | जब कर्म का फल व्यक्ति की इच्छा, आवश्यकता और परिस्थिति के अनुसार मिलते है तो वह उस कर्मफल को सुख, सौभाग्य, कृपा, आशीर्वाद इत्यादि नाम देता है और जब कर्म का फल विपरीत होता है तो व्यक्ति कर्मफल को दुःख, दुर्भाग्य, कुदृष्टि और श्राप इत्यादि नाम देता है | सुख या दुःख साकार संसार में अनुभव करने के लिए है,  आध्यात्म में इनका कोई स्थान नहीं है क्योंकि आध्यात्म का अर्थ ही शून्य है जहाँ ना कोई सुख है और ना ही कोई दुःख है | व्यक्ति को दुखी होने और असफल होने का अनुभव तभी होता है जब वह संसार में ईश्वर को साकार खोझने या समझने के लिए कर्म करता है और आध्यात्म में किसी धर्म(नियम) पर चलकर  कर्म करता है |

ईश्वर :

मैं यह मानता हूँ कि ईश्वर जिसे हम निराकार कहते है उसका स्थान पृथ्वी नहीं है | आत्मा निराकार का अंश है परन्तु आत्मा ईश्वर नहीं है, संसार में अरबों-खरबों जीव हैं इसका अर्थ है कि संसार में अरबों-खरबों आत्माएं हैं जो सभी ईश्वर का अंश है, यह भी सत्य है कि आत्मा में ऊर्जा और प्रकाश है,  संसार में विचर रही अरबों-खरबों आत्माओं की कितनी ऊर्जा और प्रकाश है  इसका अनुमान लगाना ही असंभव है |  पृथ्वी पर जिस निराकार(ईश्वर) के इतने अंश(आत्माएं) है और उन अंशों में इतनी ऊर्जा और प्रकाश है तो उस ईश्वर में तो अभी तक समझी ऊर्जा और प्रकाश से भी खरबों-ख़रब गुना अधिक ऊर्जा होगी, यदि ईश्वर पृथ्वी पर होता तो पृथ्वी ईश्वरीय ऊर्जा और प्रकाश के कारण भस्म हो चुकी होती,  ना ही पृथ्वी होती ना ही कोई जीव होता | पृथ्वी पर हर वस्तु में केवल ईश्वर का अंश हो सकता है क्योंकि ईश्वर बहुत विराट है | यदि जीव में ईश्वर स्वयं होता तो जीव में काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार नहीं होते क्योंकि ईश्वर इन सभी विकारों से मुक्त है, और यदि ऐसा मान भी लिया जाए कि जीव में ईश्वर है तो फिर करोडो वर्षों से मनुष्य किस ईश्वर की खोज में लगा हुआ है ?

मेरे निजी शोध से मैंने जाना कि ईश्वर का वास पृथ्वी पर नहीं है इसीलिए ईश्वर तक पहुचना असंभव है,  ईश्वर स्वयं कोई कर्म नहीं करता परन्तु फिर भी सारा संसार गतिमान है | ईश्वर निराकार है और उसमे ऐसे गुण या अवगुण नहीं है जो जीव में पाए जाते है, काम क्रोध, लोभ मोह अहंकार के अतिरिक भय, भ्रम, प्रेम, आवश्कता और विवशता ईश्वर में नहीं है इसीलिए ही ईश्वर जीव से भिन्न है | अज्ञानता के कारण अधिकतर लोग यह कहते हुए मिलते है कि ईश्वर प्रसन्न हैं या अप्रसन्न हैं, जबकि सभी यह भी जानते हैं कि अप्रसन्नता, ईर्ष्या, हानि ये सब ईश्वर नहीं करता परन्तु एक बात कहना चाहता हूँ कि ईश्वर वैर विरोध, ईर्ष्या, अप्रसन्नता इत्यादि नहीं करता तो ईश्वर प्रेम भी नहीं करता, प्रेम मन को बहलाने के लिए कहा जाता है कि मन इस बात में भ्रमित रहे कि ईश्वर प्रेम करता है और यह टिका रहे परन्तु यह सत्य नहीं है | सत्य यह है कि जब कर्मफल अपनी इच्छा, आवश्यकता और परिस्थिति के अनुसार मिलते है तब व्यक्ति यह कहता है कि ईश्वर प्रसन्न है जब कर्मफल विपरीत मिलते है तो कहते है ईश्वर अप्रसन्न है, ईश्वर शून्य है इसलिए ईश्वर में सभी कुछ शून्य है  यदि इस बात को गहराई से समझ लिया जाये तो ईश्वर को समझना है |

धर्म :

धर्म केवल नियम है, व्यक्ति किस धर्म(नियम) को मानता है या मानना चाहता है यह उसके स्वयं पर निर्भर करता है | परिवार, समाज और स्वयं के अनुभव से नियम समझता है फिर अपनी सुविधा, आवश्यकता और विवशता के अनुसार अपने धर्म पर चलता है, प्राय: लोग यह कहते है कि यह मेरा धर्म है इसलिए मै ऐसा करता हूँ | जीवन में परिस्थिति और विवशता के कारण धर्म में बदलाव हो जाता है, समय समय पर मिली जानकारी से विचार बदलते है और विचारों के साथ नियम बदलते रहते है | कहा जाता है कि व्यक्ति का धर्म (नियम) एक होना चाहिए परन्तु ऐसा होना असंभव है क्योंकि व्यक्ति अपनी सुविधा के अनुसार नियमों को बदल लेता है | जब कोई व्यक्ति अपनी आवश्यकता, विवशता, परिस्थिति के कारण अपनी सुविधा को नहीं देखता और किसी एक धर्म (नियम) पर आजीवन चलता है तब वह अध्यात्म में उन्नत्ति करने के लिए सक्षम है क्योंकि अब उसे मन को टिकाना आ गया है |

जो कर्म समाज के धर्म( नियम ) के विपरीत हो वह अधर्म है, एक व्यक्ति का धर्म दूसरे व्यक्ति के लिए अधर्म हो सकता है क्योंकि सभी लोगों ने अपनी सुविधा के अनुसार अपने अपने नियम बना रखे है | कुछेक सार्वजानिक नियम है जिनको धर्म या अधर्म के नामों से जानते है परन्तु सभी के अपने अपने विचारों पर निर्भर करता है कि उनका धार्मिक स्तर कैसा और कितना विकसित हुआ है | यहाँ एक बात मैं स्पष्ट कर दूं कि धार्मिक स्तर आध्यात्मिक स्तर नहीं है |

आध्यात्म :

आध्यात्म कोई धर्म नहीं है, आध्यात्मिक होने का अर्थ है जब मन अंतरात्मा के कहने पर चले, जब मन पर किसी व्यक्ति या वस्तु का प्रभाव नहीं हो, जब मन को किसी वस्तु, व्यक्ति या विचार की बैसाखी की आवश्यकता नहीं हो, जब मन किसी भी सांसारिक वस्तु या व्यक्ति पर निर्भर नहीं हो | अध्यात्म का अर्थ है शून्य अवस्था | ऐसी अवस्था जिसमे कोई विचार नहीं हो, अध्यात्म को समझना और फिर अध्यात्म पर चलना कठिन कार्य है क्योंकि व्यक्ति मनमुखी ( मन के कहने पर चले वाला ) है और मन का चंचल स्वभाव सांसारिक वस्तुओं और व्यक्तिओं पर आकर्षित होकर सम्बन्ध बनाना है |

शून्यात्मिक:

संसार के अधिकतर लोग धर्मात्मिक है जिनकी आत्मा का स्तर तीसरे स्थान पर है ऐसे लोग किसी ना किसी धर्म, जीवित अथवा मृत व्यक्ति को मानते है अर्थात ऐसे लोग साकार को ही सर्वत्र मानते है और ये धर्मात्मिक लोग दूसरों की शक्तियों पर निर्भर रहते है | आत्मा का दूसरा स्तर आध्यात्मिक है ऐसे लोग निराकार ऊर्जा को मानते है और आध्यात्मिक लोग अपनी ऊर्जा और प्रेम पर निर्भर रहते है और जिन लोगों को निर्भरता पसंद है उनके साथ अपनी ऊर्जा और प्रेम साझा करते है | आत्मा का सर्वोत्तम स्तर शूण्यात्मिक है ऐसे लोग किसी नाम, चित्र, दिशा, दशा, वास्तु, व्यक्ति इत्यादि पर निर्भर नहीं रहते क्यूंकि इन्हे शून्य अर्थात निराकार, कर्म, कर्मफल, मोक्ष इत्यादि का समस्त ज्ञान होता है |

गुरु :

सभी लोग एक दूसरे के लिए किसी ना किसी रूप में गुरु की भूमिका निभाते है, माता पिता पहले गुरु हैं, उसके बाद हर साकार वस्तु, व्यक्ति और अदृश्य जगत ( जो केवल अनुभव किया का सकता है ) बहुत कुछ सिखाता रहता है | गुरु कहलाना बहुत सरल है परन्तु गुरुधर्म निभाना गुरु के लिए कठिन कार्य होता है | गुरु कहलाने के बाद शिष्य पर आने वाली प्रत्येक सांसारिक समस्या से बचाव करना और अध्यात्मिक विकास करना गुरु का दायित्व/ जवाबदेही है | केवल जयकार कराना या निजी स्वार्थ के लिए किसी को शिष्य कहना गुरु की आध्यामित उन्नत्ति में असफलता या विलम्ब का कारण बनता है | गुरु वह है जो अपने शिष्य को ऐसे गुर सिखाये जिनकी सहायता से शिष्य की आवश्यकता के अनुसार उसकी सांसारिक और आध्यात्मिक उन्नति हो |

शिष्य :

पूर्ण शिष्य वह है जो गुरु की सेवा करके अपना जीवन बिताने को ही सब कुछ मानता है,  निस्वार्थ अपना तन, मन, धन गुरु के लिए लगा देता है। शिष्य गुरु से प्रेम करता है परन्तु गुरु से आगे निकलने की या गुरु का स्थान लेने का प्रयत्न नहीं करता, गुरु अपना स्थान शिष्य को दे वो गुरु की अपनी इच्छा पर निर्भर होता है, पूर्ण शिष्य ईश्वर और गुरु के भय में रह कर जीने वाला होता है

शिष्य गुरु की रमज़ को समझता है, उसे यह ज्ञान होता है कि गुरु के क्रोध या डांट, फटकार में भी उसका क्या लाभ है,  शिष्य यह जानता है कि गुरु अपने क्रोध या फटकार द्वारा उनके जाने अनजाने हो गए कुकर्मों का प्रभाव समाप्त करने में उसकी सहायता करता है और इससे शिष्य की अध्यात्मिक उन्नति ही होगी

मंत्र :

हर व्यक्ति यह जानना चाहता है कि तेतीस करोड़ देवी देवता, अनेक अवतार, ग्रह नक्षत्र, भिन्न भिन्न प्रकार के मंत्र जिनमे वैदिक मंत्र, तांत्रिक मंत्र, माला मंत्र, नाम मंत्र, बीज मंत्र इत्यादि में से कौन सा जाप करना चाहिए |  चारो ओर इतनी सारी जानकारी और ज्ञान के कारण व्यक्ति भ्रमित है कि एक समस्या के समाधान के लिए किसी एक मंत्र या  जाप करके ही उसके कार्य सिद्ध होंगे दूसरे कार्य के लिए कुछ ओर जाप करना पड़ेगा | दूसरी ओर व्यक्ति को यह ज्ञान भी है कि ईश्वर (शून्य) एक है जो निराकार है जिसके अधीन सभी देवी देवता, अवतार, सभी ग्रह नक्षत्र इत्यादि है | आध्यात्मिक दृष्टि से ईश्वर (शून्य) का कोई आकार नहीं है और संसार में देखे ओर समझे जाने वाले गुण अवगुण से ईश्वर (शून्य)  का कोई लेना देना नहीं है | जैसे पिता के जन्म के बारे में पुत्र नहीं जान सकता उसी प्रकार साधारण जीव ईश्वर या उसके नाम के बारे में भी नहीं जान सकते | एक सत्य यह भी है कि संसार में किसी को भी यह ज्ञान नहीं है कि ईश्वर का वास्तविक नाम क्या है, नाम उसका होता है जिसका जन्म होता है और ईश्वर (शून्य) अजन्मा है | साधारण व्यक्ति श्रद्धा और विश्वास से लिया गया कोई भी नाम उसी का नाम मान लेता है क्योंकि ईश्वर (शून्य) को सर्वव्यापी भी कहते है | अज्ञानता और दुष्प्रचार के चलते व्यक्ति इतना अधिक भ्रमित हो चुका है कि ईश्वर को समझते हुए भी मूर्खों की भांति कर्म कर रहा है | सभी ने ऐसा सुना है कि संसार में जो भी हो रहा है या जो भी हम देख रहे है वह सब झूठ ओर नाशवान है केवल एक ईश्वर (शून्य) ही सत्य है | संसार में जो भी हो रहा है वह सब ईश्वर (शून्य) द्वारा संचालित होता है केवल ईश्वर (शून्य) ही करता है | हमें ईश्वर (शून्य) का वास्तविक नाम नहीं पता इसलिए हम उसे श्री शून्य कह कर संबोधित करना चाहिए और यह बार बार जपने से हमारे सब कार्य सिद्ध हो जाते है  | श्री शून्य कहने से हम सीधा ईश्वर से जुड़ते है हमें उस तक पहुँचने के लिए बीच की किसी कड़ी की आवश्यकता नहीं पड़ती | श्री शून्य जपने के लिए आत्मा को किसी चित्र, मूर्ति, मनुष्य इत्यादि की आवश्यकता नहीं है आत्मा स्वयं को सीधा निराकार से जुड़ती है श्री शून्य का जाप करने से सभी प्रकार से सांसारिक दुखो का अंत होता है और आत्मा जन्म मरण के चक्र से मुक्त होती है | श्री शून्य जपने के लिए किसी कर्म काण्ड या विधि की आवश्यकता नहीं है इसको उठते बैठते, सोते जागते कही भी जपा जा सकता है | समय या स्थान का कोई महत्त्व नहीं है क्योंकि सारा संसार ही उस निराकार का स्थान है सांसारिक और अध्यात्मिक उन्नति के लिए निरंतर श्री शून्य का जाप बहुत लाभकारी और उत्तम फल देने वाला है | व्यक्ति जितना अधिक श्री शून्य को अपने मन और अंतरात्मा में रखेगा उतना अधिक अपने आसपास ईश्वर की उपस्थिति को अनुभव करेंगा | इस मंत्र का जाप करना मन को एक पर टिकाने का अभ्यास भी है |

कर्मकांड :

आत्मा अमर है, ना जलती है ना गीली होती है, ना ही इसे भूख प्यास लगती है ना ही इसके लिए दुःख सुख है, स्पर्श और अनुभव केवल शरीर से होता है संसार के जितने भी संबंध है वह सब मनुष्य द्वारा संसार को नियमित रूप से चलाने के लक्ष्य से बनाये गए है   संबंध केवल सांसारिक है मृत्यु के बाद आत्मा का किसी के साथ संबंध नहीं रहता क्योंकि आत्मा ने अगले किसी शरीर को धारण करना होता है आत्मा को परमात्मा का अंश माना गया है और यह कर्मो के आधार पर अलग अलग शरीर धारण करती है, आत्मा का सांसारिक संबंधो से कोई लेना देना नहीं है कहा जाता है कि आत्मा कर्मों के आधार पर मनुष्य के अतिरिक्त चौरासी लाख प्रकार के शरीर धारण करती है मनुष्य की मृत्यु के पश्चात उसकी आत्मा मोक्ष के लिए अनेको कर्मकांड, धर्म क्रियाएं, अनुष्ठान, संस्कार समारोह इत्यादि किये जाते है क्या यह सब करने से आत्मा को मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है या यह सब रस्में दिखावे और लाभ के लिए बनायीं गयी है ?

मनुष्य के अतिरिक्त किसी अन्य जीव जंतु की कोई धर्म क्रिया, अनुष्ठान इत्यादि नहीं होते तो क्या उन आत्माओं को मोक्ष नहीं मिलता ?

मनुष्य मृत्यु के बाद मोक्ष के लिए किये गए अनेकों प्रयास के बाद भी प्रेतात्माएं  मनुष्य की आत्मा ही बनती है किसी और जीव जंतु की नहीं अनेको लोगो को प्रेतआत्माओं का आभास होता है जिनमे से लगभग सभी लोगो को मनुष्य वाली आकृति ही दिखती या अनुभव होती है जो आत्मा मनुष्य शरीर धारण करती है मृत्यु पश्चात अनेकों कर्मकांडों के बाद भी उसकी आत्मा अगले शरीर (जन्म) के लिए भटकती है जीव जंतुओं की मृत्यु के बाद कोई कर्म काण्ड ना होने पर भी उन्हें अगला शरीर मिल जाता है यह बात अति विचारणीय है कि यदि मृत्यु के पश्चात आत्मा ने दूसरे शरीर को धारण कर लिया है तो उसके लिए खिलाया खाना उसको कैसे पहुंचेगा ?

यदि कर्मकांडों से आत्मा का मोक्ष हो गया है तो उसके लिए सालों तक किसी अन्य व्यक्ति को खाना खिलाने वाला कर्म तो निष्फल ही जायेगा हर साल मृतकों के नाम का खाना खिलाना या दान देना किसी निजी लाभ के लिए बनाये भय या भ्रम का हिस्सा है इस भय के कारण मृतक व्यक्ति के लिए पकवान खिलाये जाते है चाहे उनके जीवन काल में उन्हें पानी भी ना पूछा गया हो इसका यह भी अर्थ है कि यह सब कर्मकांड प्रेतात्माओं का भय बताकर निजी लाभ के लालच से कराये जाते है यदि आत्मा को अपने कर्मों के अनुसार ही नया शरीर (जन्म और मृत्यु) मिलते है तो भय या भ्रम में किये कर्मकांडों का क्या लाभ है ?

यदि कर्मकांडों से मोक्ष मिल जाता तो अच्छे कर्म करने की क्या आवश्यकता होती, क्योंकि मृत्यु के बाद मृतक की प्रेतात्मा के भय से उसके परिवार वाले और संबंधी ही सारे कर्मकांड कर देते और मोक्ष हो जाता । अपना समय, धन और शक्ति का प्रयोग किसी कर्म के तर्क को समझने के पश्चात ही करना चाहिए, अंधविश्वास केवल भ्रमित करता है ।

मोक्ष :

हम सभी जानते है कि संसार में जो भी उत्पन्न होता है उसकी समाप्ति भी निश्चित है, ऐसा ब्रह्माण्ड में कुछ भी नहीं जो कभी समाप्त नहीं होगा | आत्मा की उत्पत्ति हुई है तो उसका मोक्ष भी अवश्य ही होगा, मोक्ष को लेकर भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि सभी का मोक्ष कभी न कभी अवश्य होगा | भय, अज्ञानता और प्रचलित बातों के कारण भ्रमित होकर मोक्ष की प्राप्ति के लिए किए गए कर्म और अधिक कर्म भोगने का कारण बनते है | संसार की प्रत्येक वस्तु, व्यक्ति और विचार से मुक्त होना मोक्ष है,  भय, अज्ञानता और भ्रम से मुक्ति ही जीते जी मोक्ष है, जब व्यक्ति पर साकार संसार की किसी भी वस्तु, परिस्थिति और व्यक्ति का प्रभाव नहीं पड़ता तो वह परम आनंद का अनुभव करता है | मोक्ष का अर्थ है साकार से मुक्ति, व्यक्ति जितना भी देखता, सुनता, बोलता, विचारता और अनुभव करता है उस सभी से मुक्त होना ही मोक्ष है, इसे शून्य अवस्था भी कहते है | मोक्ष होने के लिए है करने के लिए नहीं है, किसी का मोक्ष किया नहीं जा सकता, मोक्ष स्वत: होता है | व्यक्ति को तो यह भी निश्चित नहीं है कि मोक्ष के लिए किया गया प्रयत्न/ कर्म करने से मोक्ष मिलेगा या नहीं फिर भी वह नरक और चौरासी लाख प्रकार की योनियों के भय से आधी अधूरी जानकारी के आधार पर कर्म कर रहा है जिसका परिणाम भी आधा अधूरा ही है | मोक्ष की प्राप्ति के लिए निराकार/ ईश्वर और मोक्ष दोनों को समझना अति आवश्यक है |

आकर्षण :

संसार में तीन प्रकार के आकर्षण है इसमें पहला आकर्षण ज्ञान है, व्यक्ति को ज्ञान सदैव आकर्षित करता है क्योंकि व्यक्ति की हर रहस्य को समझने की इच्छा होती है | यह आकर्षण मन से होता है अंतरात्मा कभी भी आकर्षित नहीं होती, क्योंकि मन का स्वभाव नकारात्मक होता है इसलिए आकर्षित होने के साथ साथ मन संदेह और भ्रम की स्थिति में रहता है | ज्ञान से आकर्षित होने पर मन सम्बन्ध स्थापित करता है परन्तु यह सम्बन्ध तब तक चलता है जब तक रुचि के अनुसार ज्ञान मिलता रहे, रुचि से भिन्न विषय पर मन का आकर्षण समाप्त होने लगता है | मन कभी एक विचार, व्यक्ति या वस्तु के साथ आजीवन नहीं विचर सकता इसलिए समय समय पर बदलाव के लिए मन बार बार आकर्षित होता है,  मन को ज्ञान या ज्ञान का माध्यम (व्यक्ति, पुस्तक, ग्रन्थ, इत्यादि) अति प्रिय होते है, उसी पर से ध्यान हट जाना मन के स्वभाव का एक भाग भी है |

दूसरा आकर्षण धन का है, सांसारिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए धन अति आवश्यक है इसलिए सभी को लगता है कि धन जितना अधिक होगा उतना ही अधिक वह सांसारिक सुखों को भोगने में सक्षम होगा | मनुष्य को धन सदैव आकर्षित करता है, धन के कारण ही ऐसा व्यक्ति भी आकर्षित करता है जिसके पास धन अधिक हो | जब मन धन की ओर आकर्षित होता है तब नियम और विवेक को पराजय का सामना करना पड़ता है परन्तु जब मन धन पाने के लिए विवश या लोभी होता है तो नीचता वाले कर्म करने में भी हिचकिचाता नहीं है | संसार में ऐसा कोई भी मनुष्य नहीं है जो धन की और आकर्षित नहीं होता, सभी आकर्षित होते है कोई कम कोई अधिक |

तीसरा आकर्षण शरीर का है | सुन्दरता सभी को आकर्षित करती है इसी सुन्दरता के कारण मन सम्बन्ध स्थापित करता है, जब मन अपना सम्बन्ध किसी शरीर से स्थापित करता है तो उसे प्रेम कहता है, इसके बाद बार बार मिलना या शारीरिक सम्बन्ध स्थापित करना मन को आनंद अनुभव कराता है परन्तु यह सत्य नहीं है कि किसी दूसरे के शरीर से आनंद मिलता है | भोग का सुख दूसरे के शरीर से नहीं मिलता यह व्यक्ति के अपने रक्त (खून) की ऊर्जा के कारण मिलता है, जिसके अंदर जितनी ऊर्जा होगी उसे उतना ही आनंद आयेगा, ऐसा समझना या कहना अज्ञानता है कि सम्भोग का आनंद सहयोगी के कारण मिलता है | दूसरे का तन, बनावट, सुन्दरता, वस्त्र इत्यादि केवल आकर्षित करते है आकर्षण से जो ऊर्जा बनती है उसी का फल शारीरिक सम्बन्ध की इच्छा को जागृत करती है परन्तु आनंद तभी मिलता है जब स्वयं के रक्त में ऊर्जा के कारण उत्तेजना हो, यदि दूसरे के शरीर से आनंद होता तो सम्भोग से कुछ क्षण पहले जो साथी अति प्रिय है जिसे व्यक्ति छोड़ना नहीं चाहता, शरीर में रक्त ऊर्जा दोबारा एकत्रित होने तक उसी की आवश्यकता समाप्त हो जाती है |

शारीरिक सम्बन्ध :

एक समय में शारीरिक सम्बन्ध एक के साथ ही होने चाहिए इसके लिए पति-धर्म और पत्नी-धर्म पर चलना सिखाया जाता है परन्तु इसके पीछे का अध्यात्मिक कारण यह है कि ऐसा विचार होने से मन को किसी एक के साथ टिकने का अभ्यास भी बना रहता है, मन भटकता रहता है परन्तु पाप करने और पापकर्मफल को भोगने के भय से विवश है, जिस मन से भय निकल जाता है उसके लिए पाप पुण्य की कोई परिभाषा नहीं है, भय समाप्त होने पर उसके लिए केवल आवश्यकता है | मन कभी तृप्त नहीं होता, मन को अधिक, नया और भिन्न चाहिए इसलिए शारीरिक संबंधों में व्यक्ति नयेपन या नए साथी की खोज में रहता है | धर्म का पालन मन से होता है, किसी एक धर्म की पालना ना करने वाले लोग या  बार बार आस्था बदलने वाले लोगों को एक से अधिक लोगों के साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाने में कोई आपत्ति नहीं होती, ऐसे लोग इसे पाप या अनुचित नहीं मानते इसे ये लोग आवश्यकता कहते है | जो लोग धर्म के पक्के होते है उन्हें एक से अधिक शारीरिक संबंधों में आपत्ति होती है और ये उसे पाप और अधर्म का नाम देते है | अभ्यास के लिए धर्म अच्छा है, या ऐसा कहा जाए कि धर्म आध्यात्म की पहली सीढ़ी है | आध्यात्म में धर्म सहित सभी शारीरिक, मानसिक और आर्थिक सम्बन्ध छोड़ कर मुक्ति मिलती है इसके अभ्यास के लिए ही धर्म (नियम) बने है परन्तु अपनी आवश्यकता या विवशता के कारण नियम को लचीला बनाना अनुचित है |

चक्र :

शरीर में सात तरह के चक्र है और शरीर में सात तरह के ही द्रव्य बनते है इनमे वात, पित, कफ, मल, मूत्र, वायु, और वीर्य हैं | यदि इनमे से एक का भी संतुलन बिगड़ जाये तो अनेक तरह की शारीरिक बीमारियाँ हो सकती हैं | यह सभी सातो द्रव्य आवश्यकता अनुसार व्यक्ति को अपने शरीर से बाहर करने होते है इनमे से छ: प्रकार (वात, पित, कफ, मल, मूत्र, वायु) के संतुलन तो व्यक्ति बनाता है और उस पर खुल कर बात करता है परन्तु वीर्य का संतुलन बिगड़ने पर इसका उपचार नहीं करता, ना ही इसके लिए खुल कर बात करता है | सामजिक मर्यादाओं के कारण वीर्य शब्द को अशलील और भद्दा माना जाता है परन्तु ऐसा नहीं है बल्कि यह एक विचारणीय विषय है |  वीर्य के संतुलन बिगड़ने पर इसकी ऊष्मा हमारे मस्तिष्क में चढ़ जाती है क्योंकि गर्मी ऊपर की ओर जाती है जिसके परिणाम से हमारे मस्तिष्क में  विषाद , उदासी, दबाव इत्यादि होने लगते है जिसके लक्षण चिडचिडापन, उदासी, नकारात्मक विचार इत्यादि पाए जाते है | इस अमूल्य ऊर्जा (वीर्य) का सही तरीके, सही स्थान और आवश्यकता अनुसार प्रयोग होना अति आवश्यक है |

असत्य/ झूठ :

झूठ बोलना पाप है सभी जानते है परन्तु साथ ही कहते है कि आवश्यकता और विवशता में बोला गया झूठ पाप नहीं होता | व्यक्ति ने अपनी सुविधा के अनुसार ही सारी बातों को सही और गलत की परिभाषा दी हुई है | यदि झूठ पाप है तो हर परिस्थिति में झूठ पाप ही है और उसका फल वही होगा जो किसी पाप का होना चाहिए | अपने आप को प्रसन्न करने और मन बहलाने से झूठ सत्य नहीं होता | झूठ या सत्य सांसारिक व्यवस्था को चलाने के लिए बने है, संसार में जो कुछ भी साकार है वह  झूठ है जो निराकार है वह सच/सत्य है | यहाँ तक कि मन को टिकाने के लिए लिया गया नाम भी झूठ है, व्यक्ति जो भी नाम का जाप करता है वह ईश्वर का नाम नहीं है क्योंकि जिसका जन्म ही नहीं हुआ, जो ईश्वर अजन्मा है उसका नाम भी कैसे हो सकता है, व्यक्ति द्वारा बनायी व्यवस्था केवल व्यस्त रहने के लिए है |

सत्य :

संसार में एकमात्र सत्य यह है कि संसार में जो भी देखा, सुना, बोला, सोचा, और अनुभव किया जाता है वह सभी कुछ असत्य है इसीलिए मनुष्य सत्य की खोज में अपना जीवन लगाता है |

संबंध :

जीवन में जो कोई भी हमें मिलता है उससे व्यक्ति का पिछले किसी जन्म का लेना देना होता है परन्तु यह पूरा सत्य नहीं है कि सभी लोग पिछले किसी जन्म के कारण ही किसी व्यक्ति को मिलते है क्योंकि जीवन में बहुत से ऐसे लोग मिलते है जिनसे व्यक्ति का पिछला कोई संबंध नहीं होता, जिनके मिलने से व्यक्ति द्वारा नए कर्म बनते है जो इस जन्म या अगले किसी जन्म में काम आते है जैसे पिछले किसी जन्म के किसी कर्म के कारण कुछ लोग इस जन्म में मिलते है । अभी तक तो सभी ने केवल यह ही सुना और समझा है कि मिलने वाले लोगों के साथ पिछले किसी जन्म का संबंध होता है ।  किसी जन्म में पहली बार मिलने वाले लोग कैसे और क्यों मिलते है ?  जब दो आत्माओं के विचारइच्छा,लक्ष्य,व्यवहारकर्म आदि आपस में मिलते जुलते है तो दोनों का एकदूसरे के साथ मिलना होता है जिसके परिणाम से नए कर्म बनते है । जो व्यक्ति जैसा होता है वह अपने आप वैसे लोगो में चला जाता है नशा करने वाला नशे वालो में जाकर बैठेगा और धर्म वाला धार्मिक लोगो के पास ही जायेगा । जैसे विचार स्वयं के होते है वैसे विचार वाले नए लोगो के साथ मिलने के अवसर बार बार मिलते है । नए बने कर्म व्यक्ति को स्वयं के द्वारा पिछले जन्मो में किए कर्मों के परिणाम मिलने में सहायक होते है । एक सत्य यह भी है कि व्यक्ति पर अपने कर्मो से अधिक प्रभाव स्थान, परिवार, समाज, धर्म इत्यादि का होता है । प्रकृति का नियम है कि मन आत्मा ( मन + अंतरात्मा ) जो भी चाहती है प्रकृति उसे देती है इसलिए आत्मा अपनी इच्छाशक्ति के द्वारा नयी आत्माओं से मिल सकती है । विचार सारे संसार को चलाते है जैसे विचार होंगे वैसा ही सब होता जायेगा और जैसा होगा वैसे ही विचार बनते जायेंगे । सभी को कोई भी कर्म अपनी इच्छा से करने का अधिकार है परन्तु कर्म के परिणाम मिलने का समय और स्थान का ज्ञान किसी को भी नहीं है व्यक्ति इस रहस्य को समझना चाहता है । स्वयं के कर्म करके नए संबंध भी बनते है और नए संबंध बना कर आने वाले जन्म में उसका लाभ भी मिलता है ।

संसार में केवल तीन प्रकार के सम्बन्ध है मानसिक सम्बन्ध, आर्थिक सम्बन्ध  और शारीरिक सम्बन्ध | परिवार वालों के साथ शारीरिक सम्बन्ध के साथ साथ मानसिक और आर्थिक सम्बन्ध भी होता है, तीनो प्रकार के संबंधों के कारण ही इस सम्बन्ध में अधिक बंधन / मजबूती होती है, व्यापार, नौकरी इत्यादि में आर्थिक कारण होते है जहाँ धन की बात आती है वहां सम्बन्ध अधिक देर तक नहीं चलते बल्कि ऐसे संबंधों को आवश्यकता और विवशता के कारण चलाना पड़ता है | मानसिक (मन) सम्बन्ध परिवार वालो की तुलना में अनजान लोगों के साथ अधिक बनते है, जो बाद में तनाव और झगडे का कारण बनते है | जहाँ तीनो प्रकार की भागीदारी है वहां सम्बन्ध अधिक गहरा होता है जहाँ दो प्रकार की भागीदारी है वहां सम्बन्ध माध्यम होता है और जहाँ एक ही भागीदारी है वहां सम्बन्ध कभी भी समाप्त हो सकता है |

आवश्यकता :

संसार में तीन प्रकार की आवश्यकताएँ है, आर्थिक, मानसिक और शारीरिक | व्यक्ति अपनी आवश्यकता को पूरा करने के लिए आर्थिक सम्बन्ध बनाता है आर्थिक सम्बन्ध बनाने से धन आता है और यही धन सांसारिक सुख सुविधा को पूरा करने के काम आता है आर्थिंक सम्बन्ध जितने अधिक हो व्यक्ति उतना अधिक प्रसन्न होता है और अधिक से अधिक आर्थिक संबंधों को स्थापित करने का प्रयत्न करता रहता है | मानसिक सम्बन्ध सबके साथ बनते है इसलिए जितने लोगों के साथ अच्छे मानसिक सम्बन्ध बनते है व्यक्ति और अधिक लोगो के साथ मानसिक सम्बन्ध स्थापित करने का इच्छुक रहता है | यह व्यक्ति की आवश्यकता है जिसे पूरा करने में सारा जीवन निकल जाता है | जिस प्रकार व्यक्ति को आर्थिक और मानसिक संबंधों की अधिक से अधिक आवश्यकता है उसी प्रकार शारीरिक सम्बन्ध की भी सभी को आवश्यकता है परन्तु एक से अधिक शारीरिक सम्बन्ध को अनुचित/गलत, पाप कहा जाता है | यदि आवश्यकता या विवशता के कारण एक से अधिक आर्थिक सम्बन्ध या मानसिक सम्बन्ध उचित है या आवश्यकता और विवशता के कारण झूठ बोलना पाप नहीं है तो आवश्यकता या विवशता में एक से अधिक शारीरिक सम्बन्ध पाप नहीं है | व्यक्ति के अपने निजी विचार या नियम पर निर्भर करता है कि वह क्या सही मानता है और क्या सही नहीं है, परन्तु जब व्यक्ति धर्म (नियम) को मानता है तो सभी बातों में उसका धर्म एक सामान होना चाहिए, परिस्थिति, व्यक्ति या इच्छा के अनुसार धर्म (नियम) को लचीला बनाना अनुचित है |

विवशता :

जीवन में बहुत सी ऐसी परिस्थियाँ आती है जब व्यक्ति विवश हो जाता है, करने से कार्य नहीं होते |  व्यक्ति को अपने विचार, सम्बन्ध और शरीर को अपनी परिस्थिति और आवश्यकता के अनुसार बदलना पड़ता है | विवशता मन का रोग है, यदि व्यक्ति (मन) हर परिस्थिति को स्वीकार कर ले तो मन विवशता वाले रोग से मुक्त है या इसे ऐसा समझा जाए कि स्वीकार नहीं करना ही मन का एकमात्र रोग है |

भय :

संसार में तीन प्रकार के भय है, जिसमे भय पहला अकेलेपन का है | कोई भी व्यक्ति अकेला नहीं रहना चाहता, व्यक्ति को दूसरों पर आश्रित रहने की आदत हो चुकी है कि अकेला रहने से भयभीत होता है | आश्रित होने के लिए वह व्यक्ति, चित्र या अदृश्य जगत का सहारा लेता है | दूसरा भय पराजय का है, कोई भी व्यक्ति किसी भी कार्य में या समाज में पराजय का सामना नहीं करना चाहता | जिस व्यक्ति को पराजय स्वीकार करनी आ गयी उसके लिए कोई विजय या पराजय नहीं है | तीसरा भय अपमान का है, व्यक्ति समाज में अपना अधिक से अधिक सम्मान चाहता है कोई भी उसका तिरस्कार नहीं करे और सदा सम्मान ही मिलता रहे उसके लिए वह बनावटी व्यवहार भी करता है | जब व्यक्ति अपने भीतर के भय को ही पराजय कर लेता है तो वह स्वयं को सर्वशक्तिमान अनुभव करता है |

वैवाहिक सम्बन्ध : 

वैवाहिक सम्बन्ध तीन प्रकार से चलते है, वैवाहिक सम्बन्ध को सुचारू रूप से चलाने के लिए व्यक्ति को यह ज्ञान होना अति आवश्यक है कि मेरे जीवन साथी को मुझ से क्या क्या आशाएं है | विवाह एक ऐसा सम्बन्ध जिसमे एक दूसरे पर अटूट विश्वास होता है, व्यक्ति को यह आशा होती है कि इस सम्बन्ध में एक ऐसा साथी मिलेगा जो आजीवन उसकी मानसिक और शारीरिक आवश्यकताओं और निर्बलताओं को गोपनीय रखते हुए उसका पूरा सहयोग करेगा | ऐसी आशा पति और पत्नी दोनों और से होती है | जो पति-पत्नी इस बात को समझते है कि जो मैं आशा रखता हूँ वही आशा मेरे जीवनसाथी को भी मुझसे है, उन्हें आपसी तालमेल बैठने में समय नहीं लगता | एक-दूसरे को पर्याप्त समय देना, एक-दूसरे से अपनी आवश्यकताओं के बारे में खुल कर बात करना, एक-दूसरे को हर निर्णय में बराबर का सम्मान करना सुखी वैवाहिक जीवन की कुंजी है | जीवनसाथी को अपनी इच्छा के अनुसार चलाना सुखी वैवाहिक जीवन नहीं है यह मन को शांति नहीं अशांति और असंतुष्टि देता है क्योंकि व्यक्ति को यह पता होता है जो हो रहा है वह जीवनसाथी का प्रेम या समर्पण नहीं है यह समाज और परिवार के कारण विवशता है |  सुखी वैवाहिक जीवन के लिए नियमित एक-दूसरे की इच्छा और आवश्यकता के अनुसार शारीरिक संबंध का होना अति आवश्यक है | पति-पत्नी में धन के कारण तनाव नहीं होना चाहिए, उपलब्ध धन को कैसे व्यवस्थित करना है यह दोनों के निजी निर्णय का भाग होना चाहिए |  सुखी वैवाहिक जीवन के लिए धन की बहुत बड़ी भूमिका है पति-पत्नी दोनों को अपने आय के स्त्रोत के अनुसार परिवार और सामाजिक आवश्यकताओं को व्यवस्थित करना चाहिए |

योनियाँ :

मनुष्य चौरासी लाख प्रकार की योनियों के बारे में सोचकर सदैव भयभीत और भ्रमित रहता है कि कहीं मुझे मृत्यु के बाद इन योनियों में ना विचरना पड़े | एक ओर तो मनुष्य जीवन में इतने अधिक दुःख, समस्याएं और भ्रम है कि व्यक्ति इस सब से छुटकारा या मृत्यु चाहता है तथा दूसरी ओर वह फिर से मनुष्य जीवन ही चाहता है | सभी ने यह सुना है और मानते भी हैं कि आत्मा की मृत्यु नहीं होती, मृत्यु या जन्म शरीर का होता है | मनुष्य शरीर में व्यक्ति दूसरे जीवों के खान-पान और रहन-सहन देखकर उनसे घृणा करता है, यह भी तो हो सकता है कि वह जीव मनुष्य के व्यवहार और समस्याओं को देखकर मनुष्य ही ना बनना चाहते हों | चौरासी लाख प्रकार की योनियों का विचार मन को भययुक्त होकर काबू में होने की सहायता करता है |

शक्ति :

सभी मनुष्यों के पास सभी प्रकार की शक्तियां है, इस बात को पढ़कर आश्चर्य हो सकता है परन्तु यह सत्य है | सभी मनुष्यों के पास छ: इन्द्रियाँ हैं और सभी के पास कोई न कोई ऐसा गुण होता है जो दूसरों में नहीं होता परन्तु ज्ञान के अभाव के कारण यह पता नहीं होता कि यह गुण ही शक्ति है | इस शक्ति का प्रयोग कैसे और कितना करना है इसका ज्ञान भी लगभग सभी लोगों को नहीं होता, जिन लोगों को इसका ज्ञान होता है वह इसको उन्नत करने के लिए प्रयास करते है तभी दूसरों के लिए शक्ति वाले बनते है |

अवस्था :

प्रत्येक व्यक्ति की यह उत्सुकता होती है कि उसे यह ज्ञान हो जाये कि उसकी आध्यात्मिक अवस्था क्या है, वो कहाँ पहुंचा है और कहाँ और पहुंचना है ?

जब व्यक्ति संसार की हर वस्तु, व्यक्ति और परिस्थिति को बिना प्रश्न, विरोध और भय के स्वीकार करता है तो यह उसकी आध्यात्मिक अवस्था उन्नत होने का संकेत है | ऐसा तब भी होता है जब व्यक्ति सांसारिक वस्तुओं, व्यक्तियों से पृथक/अलग हो जाता है जब उसकी इनमे कोई रुचि नहीं रहती परन्तु उस रुचि समाप्त होने में किसी भी प्रकार की विवशता नहीं हो |

 उपदेश :

जिस व्यक्ति को मन समझाना आ गया उसके लिए संसार में कोई समस्या या प्रसन्नता नहीं है और यही शून्य अवस्था आगे चल कर मोक्ष है | सभी प्रकार की परिस्थितियों और व्यक्तियों को बिना विरोध और प्रश्न के स्वीकार करना मन समझाने का अभ्यास है |

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